Tuesday, May 01, 2018

Some questions are better left unanswered

At times I wonder why I've stopped writing...
Attributing it to being busier is a lie I keep telling myself. But deep down inside, I think that I'm just not foolish enough anymore.

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Sunday, October 23, 2016

जड़ें

वे कहते हैं, अपनी जड़ें खोजो
नहीं खोजनी मुझे, अपनी जड़ें

नहीं जाना उस महिमामंडित गहराई में,
जिसकी वे बातें करते हैं -
जिससे निकलने में
सारी आयु और ऊर्जा लगा डाली

नहीं चाहिए वो स्थिरता
जिसको खोने में
अपनी स्वतंत्रता पाई है

सही है,
कि कुछ लोग वृक्ष होते हैं
जो फल और फूल
छाया और स्थिरता सब देते हैं

पर कुछ वायु भी होते हैं
कुछ भ्रमर भी होते हैं
जो बीजों को पहुँचाते हैं अपने पंखों पर बिठा
उन जगहों पर,
जहाँ उस वृक्ष की छाया नहीं पहुँचती
और जड़ें भी

और देते हैं अवसर मरुओं को
ख़ुद की छाया और फल और फूल उपजाने का

Tuesday, September 01, 2015

Piyush Mishra's homage to Bhagvat Geeta

Let's talk about the song "Aarambh Hai Prachand" from Gulaal. I've seen people discussing the song, and the only way it is (mostly) admired is for being one of the very few songs from recent Bollywood music scene to be in "Veer Rasa". Well that, and the use of immaculate Hindi by Piyush Mishra. Both very valid points.

And what a song it is, too! It begins with the sounds of bells, shankhas and nagadas approaching you from a distance. The visuals show the fearless Ran-sa and Dukki bana getting ready for battle (the upcoming elections). This is their battle cry, and like Krishna urging Arjuna for war, you too, are propelled into this war that demands that you give it everything - your fear, inhibitions, pride and if need be - your life.
आन-बान-शान, या कि जान का हो दान, आज इक धनुष के बाण पे उतार दो! 

The first antara is where the song rises up from being a simple battle cry and goes into the first philosophy of the Geeta: It is a man's job to do his duty (fight his own battles) and be without fear or favor while doing so. It is not a he who is killing people in the battlefield. God, the omnipotent one, is the only one who can give and take lives at will. 

मन करे सो प्राण दे, जो मन करे तो प्राण ले, वही तो एक सर्वशक्तिमान है
कृष्ण की पुकार है, ये भागवत का सार है, कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो, या पांडवों का नीड़ हो, जो लड़ सका है वो ही तो महान है

You are not fighting for victory or control over anybody. Life hardly matters, as death is not the end. So, just go out there and conquer the world!
जीत की हवस नहीं, किसी पे कोई वश नहीं, क्या ज़िन्दगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं, तो मौत से  भी क्यूँ डरें, ये जा के आसमान में दहाड़ दो

** Mild spoilers below for the movie Gulaal beyond this point **

Even thematically it makes sense for having this song here; as Ran-sa is going to fight an election against his step-sister. Granted, the opposite party also has the support of his bitter enemy, Jadwal - which is the main reason he agreed to stand at all. But it does mean he has to fight his own family. While Ran-sa didn't really pause and think (like Arjuna) on its moral implications or question the need for an outright war; it is the perfect place to insert this song.

Piyush Mishra really is genius. All the songs in the movie say something - say a lot, in fact - Jab sheher humara sota hai, Duniya etc. can shake you up and/or make you break down. The dialog interwoven with poetry are just as scathing. It's a really unfair world where people of his caliber are not loaded with work. It's deeply ironical that he wrote these lines (in the same film) questioning how the world of the idealistic poets is worth living in, now that it has been reduced to what it is today -

फ़ैज़ों-फ़िराक़ों, ग़ालिब-ओ-मख़दूम, मीर की, ज़ौक़ की, दाग़ों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है


Friday, May 08, 2015

नाम, चेहरा, आवाज़


नाम बदले जा रहे हैं शहरों के
गलियों के, सड़कों के, योजनाओं के
वो जो तुम्हारा लम्बा सा नाम  था (जिसे तुम बासी कहते थे),
क्या बदल चुके हो तुम?
उस नाम का कोई मिलता नहीं

कहते हैं शहर का चेहरा बदल रहा है
बूढ़ा हो रहा है ये
नए फ्लाई-ओवर्स की लकीरें
नए अपार्टमेंट्स के धब्बे
नज़र आने लगे हैं
तुम्हारा भी चेहरा, कुछ तो बदला होगा मान के चलती हूँ

इस शहर के शोर के बीच
इस बहुमंजिला के सन्नाटे में
करोड़ों पदचापों में
कहाँ है? वो, जो कभी न गुमने वाली
कभी न बदलने वाली आवाज़ थी तुम्हारी

तुमको ढूँढ़ती हूँ मैं


(गुलज़ार के "नाम ग़ुम जाएगा" से प्रेरित )

Sunday, September 21, 2014

किसकी हक़ीक़त

ये किसकी हक़ीक़त जी रहे हो?
क्या ऊबते नहीं!

देखो, उस पार -
नज़्में पनपने के लिए तुम्हारी हथेलियों के इंतज़ार में हैं 
जो किरदार बन-बिगड़ रहे हैं,
कितनी कहानियाँ बुन चुके तुम्हारे इर्द-गिर्द 

आओ,
कि रंग भरे मौसम थिरक रहे हैं तुम्हारे लिये 
शहर, जो तुम्हारे क़दमों तले चल रहे हैं - बस और  उजड़ रहे हैं 

दुनिया ज़िंदा है हर ओर, 
और तुम हो कि साँस ले रहे हो, बस!

ये जो तुम गुज़ार रहे हो, ये तुम्हारी हक़ीक़त है,
या किसी और की 'वर्चुअल रिऐलिटी'?

Monday, September 23, 2013

Love... in a Metro / Aankhein teri kitni haseen

They were soul-mates. Or at least that was the way I saw it.

They both took the metro from Vaishali, the one that left around 7:30 am; and often enough ended up in the same metro and compartment. For some obscure feminist reason, she chose not to travel in the ladies compartment; but I guess that was just as well, for I hoped it'll bring them closer.

As fate would have it, one day, they ended up sitting together. And when a guy started making passes at her, he was man enough to ask him to keep his hands off her. Now, I felt this should have been a reason good enough for them to get to know each other; but even in the middle of saying thanks she was interrupted by a sudden "Aankhein teri kitni haseen...". It was his cellphone and he had to take it. She just smiled and started looking the other way. (What a random song to have as a ringtone!)

And then it was back to routine... the same boarding from Vaishali and getting down at Barakhamba Road. Frankly, it was getting frustrating. Didn't they see it? They were meant to be together and they had all this time, which they were wasting doing nothing. The universe was *literally* conspiring to bring them together and these two stupid souls were not even aware that the other existed!


Thankfully, the incident was not entirely without a result, because whenever she heard the familiar ringtone, she would look that way and steal a look at him. He was kind of cute, she thought. And the fact that he never looked her way gave him a mysterious air. She was slowly getting smitten, without ever having spoken to him.

He, on the other hand, was clueless as ever. If only there was some way for him to notice her ...

And then, it happened! It was an unusually quiet day in the metro, when she heard the ringtone. As if on cue, her eyes followed the sound. But that face was nowhere to be seen. She frantically started scanning every face. At the exact moment of the phone going off, he too started looking for whoever had the same ringtone as his. And then, their eyes met. Straight away he knew it was he her eyes sought, and wondered how he could have missed those enormous, wondrous eyes all this time. Eyes that, despite thick-framed glasses, were the most gorgeous ones he had ever seen. Eyes that changed colors from searching to flustered to embarrassed, all in a moment's time.

He smiled, she blushed. And that was the day they found their connection.

*sigh* If only I didn't have to work in such mysterious ways!

Tuesday, August 27, 2013

Two love stories

भाग - १ 

'मरवाओगी एक दिन तुम मुझे', मैं अक्सर उससे कहता था। वो - यानी मधुमिता - हवा की तरह आज़ाद और आँधी की तरह जिसकी ज़िन्दगी छुए उसे तबाह करने वाली। हम एक-दूसरे को नौ सालों से जानते थे, जब वो १७ साल की थी । और करीब-करीब इतने ही सालों से मैं उसको चाहता था, ये बात वो खुद भी जानती थी। और वो; इन नौ सालों में सात बार तो उसे 'सीरियस वाला' प्यार हो चुका था । ये ज़रूर था कि इन नयी मोहब्बतों के लम्बे-लम्बे किस्से हों, ब्रेक-अप पर टूटे दिल के टुकड़े या 'उस कमीने' को मारने के लम्बे-चौड़े प्लान्स - सब लेकर आना उसको मेरे ही पास होता था ।

लड़का जितना बड़ा कमीना हो, मधुमिता को उतना ही भाता था । उसका सबसे नया प्यार, सुधांशु, अव्वल दर्जे का निकम्मा था (खैर, मेरी तो उसके हर दोस्त के बारे में तक़रीबन यही राय थी) । पर जिस तरह से सुधांशु उससे से पेश आता था, कितनी ही बार मैंने खुद को उसको मारने से रोका होगा ।

वक़्त के साथ शायद कुछ अक़्ल मधुमिता में भी आ रही थी, या शायद सुधांशु के कमीनेपन का असर था; पर इन दिनों वो कुछ अलग ही नज़र आ रही थी । सुधांशु की दिन-ओ-दिन बढ़ती शिकायतों की लिस्ट छोटी होते-होते अब तक़रीबन ग़ायब हो चुकी थी । ये withdrawal symptoms मैं पहले भी देख चुका था। ये प्यार भी अब चंद ही दिनों का ही मोहताज था । पर साथ ही  कुछ था, जो हर बार से अलग था । उसका मुझसे बात करने का संजीदा लहज़ा, देखने का ढंग - पता नहीं क्या था, जो अब जब भी हम साथ होते, किसी नयी ही सतह पे दिल को छू जाता था ।

उन्ही दिनों, एक और बड़ी खुशख़बरी मुझे मिली । आख़िर जिस dream job के लिए मैं पिछले एक साल से तैयारी कर रहा था - वहां से बुलावा आ ही गया था । पंद्रह दिनों के अन्दर मुझे हैदराबाद के लिए निकलना था । उस रात हमने बहुत देर तक celebrate किया । रात के क़रीब दो बज रहे होंगे । हम फ़र्श पर लेटे हुए थे, हथेलियाँ ठन्डे संगमरमर को छूती हुईं --- उसको बहुत पसंद था । शायद नशे का असर था या उससे दूर जाने का ख़याल, अचानक ही मेरे मुँह से निकल गया - 'शादी करोगी मुझसे?' एक मिनट के लिए तो मैं खुद भी भौचक्का रह गया, इस बेवकूफ़ी पर । पर फिर लगा, एक न एक दिन तो कहना ही था, आज से अच्छा मूड और मौका कहाँ मिलता ।

उसके 'तुम पागल हो गए हो क्या?' ने मुझे वापस धरातल पर ला खड़ा किया, 'तुम्हे पता है मेरे और सुधांशु के बारे में!!'
'पर… तुम सीरियस ही कब होती हो?'
'इस बार हूँ… '
'पर वो एक नंबर का गधा है । तुम तो खुद ही कहती हो, he's a jerk?'
'शायद इसीलिए … मुझसे वजह मत पूछो, मैं खुद तुमसे इतने दिनों से बात करना चाहती थी । हर बार सब तुमसे ही बताया,
इस बार जब बताना सबसे ज़रूरी था, पता नहीं क्यूँ हिम्मत ही नहीं हुई । '

वो अब रो रही थी । मैंने हज़ार बार उसके आँसू पोंछे थे, पर आज पता नहीं क्यूँ बहुत चिढ़ सी हुई । लगा, कितनी खोखली है ये, मैं भी क्या सोच रहा था । बस, मैं उठा और कमरे में जा के दरवाज़ा भड़ाम से बंद कर दिया ।

वो हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी ।
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भाग - २ 

हैदराबाद । नया शहर, नए लोग । पंद्रह रातों में जी भर रो कर और आत्महत्या के बारे में सोच-सोच कर दिल, दिमाग़ सब खाली हो चुका था । इस अजनबी शहर में आ कर उस खालीपन के अलावा कोई था भी नहीं मेरे दिन और रात भरने के लिए । ऐसे में मुझे मिली मीता । मीता - मेरी coworker - एक बच्चे के जैसी नादान और दुनिया की चालबाजियों से कोसों दूर । पहले-पहल तो मेरे cynical दिमाग़ को यक़ीन ही नहीं आया कि कोई इतना सुलझा हुआ भी हो सकता है - ख़ास तौर पर ऐसा ख़ुशशक्ल इंसान ।

मीता को मैंने सब कुछ बता दिया था, मधुमिता के character flaws को थोड़ा छुपाते हुए - क्यूंकि वो भी बता देने पर मैं निश्चित तौर पर गधा नज़र आता । एक बात ये भी थी, कि एक intense love story वाला background होने से मैं मीता के लिए कुछ ज्यादा desirable हो जाऊँगा और उसकी सहानुभूति पाना कुछ आसान, इतनी समझ थी मुझमें । एक बार को कुछ अपराध-बोध भी हुआ उसे ऐसे manipulate करते हुए, पर मैं दोबारा सब कुछ पा के हारना नहीं चाहता था, सिर्फ़ अपनी अच्छाई का भरम रखने के लिए ।

बहरहाल, ऐसी कोई नौबत आई नहीं और मीता को मुझसे प्यार भी हो गया, और हम में प्यार का इकरार भी हो गया ।मेरे मधुमिता के नौ साल के obsession को ग़ायब होते नौ हफ्ते भी नहीं लगे - हालाँकि मैं इसमें कुछ credit मधुमिता के खोखलेपन को भी देता हूँ । मन ही मन मैंने उसे Madame Bovary नाम से बुलाना शुरू कर दिया था । पता नहीं अचानक मधुमिता के लिए उपजी ये घृणा और मीता के लिए उमड़ा प्यार सच्चा था या सिर्फ़ एक reflex; पर मैं दिन में दस बार भगवन को शुक्रिया कहने को ज़रूर रुकता था, मेरी जान बचाने के लिए ।  मुझे अपनी ख़ुशकिस्मती पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था -- मानो मेरे बिना कुछ किये-धरे किसी ने मेरी ज़िन्दगी का chaos हटा के सब कुछ क़रीने से सजा दिया हो ।मीता सिर्फ़ मेरी थी और मैं उसका ।


मीता के लिए किसी को अपने इतने क़रीब आने देना एक बहुत बड़ी बात थी । अपनी निज़ी ज़िन्दगी को लेकर वो बहुत ही guarded थी । तो जब अपने birthday पर उसने मुझे अपने घर पर बुलाया, ये उसके लिए  विश्वास का एक बड़ा क़दम था। उसका घर भी उसका ही एक extension था - सब कुछ क़ायदे से लगा हुआ, balcony में कुछ गमले, एक बड़ा सा bookshelf । हर चीज़ अपनी जगह पर । 'कमाल है! तुम अगर मधुमिता का घर देख लो तो पागल हो जाओ । वहां कुछ भी ढूँढ पाना impossible है' - ये बोलते हुए मैंने कुछ सोचा ही नहीं। 

बस, मानो एक ब्लास्ट ही हो गया । मीता को इतने गुस्से में मैंने कभी नहीं देखा था - 'तुमको पता भी है तुम क्या कर रहे हो? तुम मेरे बहाने हर दिन सिर्फ़ उसे याद कर रहे हो। वो ऐसा कहती है वो ऐसा करती है.… अच्छी-बुरी जैसी भी है, तुम्हारे दिमाग़ में सिर्फ़ वही है । मैं कुछ भी कर लूँ मुझे हमेशा एक yardstick से नापा जाएगा, और मैं उसके लिए तैयार नहीं हूँ । और मुझे नहीं लगता कि तुम खुद उसके अलावा अभी किसी और के लिए तैयार हो । ' इससे पहले कि मेरा ताज्जुब और गुस्सा ख़त्म हो, और मैं कुछ बोल पाऊं - 'एक बात और, मधुमिता ने तुमसे कभी झूठ नहीं बोला - तुमसे अच्छा-बुरा कभी कुछ नहीं छुपाया ।  इतना यक़ीन प्यार की हद है । '

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भाग - ३ 

उस दिन के बाद मीता और मैं कई बार मिले ।लेकिन जो एक दरार आ गयी थी, उसको भरना नामुमकिन था, ये हम दोनों जानते थे । इसलिए जब उसको US जाने का offer आया तो न उसने रुकने की इच्छा जताई, न मैंने उसको रोकने की कोशिश की । 

चार महीने और बीत गए, पर मधुमिता पर मेरा गुस्सा कम नहीं हो रहा था । और कितनी बार उसके चलते मुझे सब कुछ खोना पड़ेगा? 

तो इसलिए उस दिन जब घंटी बजने पर दरवाज़ा खोल, और सामने मधुमिता को देखा, तो एक बार कुछ कहते ही नहीं बना । I still hated her. दो साल हो गए थे, और ऐसे-कैसे वो बिना कुछ बताये, बिना पूछे, यहाँ चली आई है? किस अधिकार से? 

पहली बात उसने ही कही, 'ऐसे भी कोई जाता है बिना बताये, बिना पूछे? मरवाओगे एक दिन तुम मुझे!'

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