Sunday, September 21, 2014

किसकी हक़ीक़त

ये किसकी हक़ीक़त जी रहे हो?
क्या ऊबते नहीं!

देखो, उस पार -
नज़्में पनपने के लिए तुम्हारी हथेलियों के इंतज़ार में हैं 
जो किरदार बन-बिगड़ रहे हैं,
कितनी कहानियाँ बुन चुके तुम्हारे इर्द-गिर्द 

आओ,
कि रंग भरे मौसम थिरक रहे हैं तुम्हारे लिये 
शहर, जो तुम्हारे क़दमों तले चल रहे हैं - बस और  उजड़ रहे हैं 

दुनिया ज़िंदा है हर ओर, 
और तुम हो कि साँस ले रहे हो, बस!

ये जो तुम गुज़ार रहे हो, ये तुम्हारी हक़ीक़त है,
या किसी और की 'वर्चुअल रिऐलिटी'?
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