Have this sudden urge to write. As if I must write it all before something in me ends, as if I'm working against a deadline. I often have these phases when I stop writing altogether. Last time that phase lasted a few years.
On a totally different note, आज राजघाट के सामने बने इग्नू के सेंटर पर जाने का मौका मिला. वैसे काम तो इग्नू में था, पर वहाँ से ज्यादा अच्छा 'गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति' कैम्पस में जा कर लगा (इग्नू की इमारत इस के अन्दर ही है). शहर की भाग-दौड़ के बीचोबीच ऐसी शांत जगह की उम्मीद नहीं थी, इसलिए शायद और pleasant surprise था.
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इससे थोडा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ एक बड़ा सा lawn नज़र आता है. इसकी boundary walls काले रंग की wrought iron की छड़ों से बनी हुई है, जिस पर हिंदी के महान कवियों व लेखकों की तस्वीरों, कविताओं व गद्यांशों वाले करीब 3x6 फुट के कई बोर्ड लगे हुए हैं. मुंशी प्रेमचंद्र, अज्ञेय, गोपाल सिंह नेपाली आदि से कभी मुलाकात का मन हो, तो वहां जाइएगा.
आगे इग्नू की बिल्डिंग की ओर बढ़ने पर गाँधी जी के एक बड़े से स्टैचू पर नज़र पड़ती है. लेकिन इनकी दिल्ली या भारत में कोई कमी नहीं है, इसलिए ध्यान अभी भी पीछे छूटे कवियों पर ही अटका रहता है.
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वहां जा कर लगा, कभी बहुत से पैसे हों, तो खुद के लिए एक ३२-मंजिला घर बनवाने से अच्छा है खूब सारी ज़मीन ले कर, खूब सारे पेड़ लगा कर, उनके बीच एक छोटा सा दुमंजिला बनवाना. एक तरफ गुलमोहर, एक तरफ अमलतास, एक तरफ पलाश, कुछ बोटल-ब्रश. एक छोटा सा तालाब भी बन सके तो क्या ही बात हो!