Friday, October 21, 2011

A different kind of afternoon

Have this sudden urge to write. As if I must write it all before something in me ends, as if I'm working against a deadline. I often have these phases when I stop writing altogether. Last time that phase lasted a few years.

On a totally different note, आज राजघाट के सामने बने इग्नू के सेंटर पर जाने का मौका मिला. वैसे काम तो इग्नू में था, पर वहाँ से ज्यादा अच्छा 'गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति' कैम्पस में जा कर लगा (इग्नू की इमारत इस के अन्दर ही है). शहर की भाग-दौड़ के बीचोबीच ऐसी शांत जगह की उम्मीद नहीं थी, इसलिए शायद और pleasant surprise था. 

रीसर्च स्कालर्स के लिए बना गेस्ट हाउस देख कर लगा, मानो ये बिल्डिंग मेरे सपनो से निकाल के यहाँ ला कर रख दी गयी हो. चारों ओर से ऊंचे पेड़ों और हरी घास से घिरी, लाल ईंटों से बनी इस इमारत का आर्किटेक्चर काफी angular सा है. अपने मोबाइल फ़ोन के १.३ मेगा पिक्सल के कैमरे से चोरी से खींची हुई एक फोटो लगा देती हूँ, हालाँकि इससे उस जगह की खूबसूरती का बिलकुल अंदाज़ा नहीं लगता.

इससे थोडा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ एक बड़ा सा lawn नज़र आता है. इसकी boundary walls काले रंग की wrought iron की छड़ों से बनी हुई है, जिस पर हिंदी के महान कवियों व लेखकों की तस्वीरों, कविताओं व गद्यांशों वाले करीब 3x6 फुट के कई बोर्ड लगे हुए हैं. मुंशी प्रेमचंद्र, अज्ञेय, गोपाल सिंह नेपाली आदि से कभी मुलाकात का मन हो, तो वहां जाइएगा.

आगे इग्नू की बिल्डिंग की ओर बढ़ने पर गाँधी जी के एक बड़े से स्टैचू पर नज़र पड़ती है. लेकिन इनकी दिल्ली या भारत में कोई कमी नहीं है, इसलिए ध्यान अभी भी पीछे छूटे कवियों पर ही अटका रहता है.

अक्टूबर के साथ शुरू हो चुके गुलाबी मौसम ने इस मौके को दोगुना ख़ास बना दिया. वैसे तो आज-कल अक्टूबर हो या जून, पक्षियों की आवाज़ सुने महीनों बीत जाते हैं.

वहां जा कर लगा, कभी बहुत से पैसे हों, तो खुद के लिए एक ३२-मंजिला घर बनवाने से अच्छा है खूब सारी ज़मीन ले कर, खूब सारे पेड़ लगा कर, उनके बीच एक छोटा सा दुमंजिला बनवाना. एक तरफ गुलमोहर, एक तरफ अमलतास, एक तरफ पलाश, कुछ बोटल-ब्रश. एक छोटा सा तालाब भी बन सके तो क्या ही बात हो!

Wednesday, October 19, 2011

Whistling and our family


Ours is a family where whistling is almost a tradition. Situ dada taught me the simplest form when I was around 8. I remember my classmates pretending to be outraged by it (I'm sure they were impressed, maybe even a little jealous). I understand that studying as we were in the RSS run Saraswati Shishu Mandir, it was expected of them to take the moral high ground all the time.  

The more elaborate whistling (with fingers) was taught in a more elaborate class held by Cheeku dada, spanning various ceremonies in the course of Shraddha didi's wedding. Kids of all age-groups were welcome to learn the art, and the course was followed by practicals exams.

Now, be it in college auditoriums, after winning cricket matches, in cinema halls at item numbers, Dil To Pagal Hai style whistling on an empty moon-lit roads, while dancing at baaraatstapori style whistling, or whistling for the heck of it at family gatherings - this is a tradition that has helped us connect with each other and baffle others over the years.

Here is to many more years of whistling our way out of blues!

Did you know?
1. RD Burman has used whistling in his songs a number of times.
2. Anu Malik is an accomplished whistler. He often whistles for his own songs (like Main Hoon Na title track)
3. I found the Sanskrit prayers we used to say in our school on the wikipedia page :D

Tuesday, October 18, 2011

The fingers of death

This cruel, bottomless pit keeps dragging me back to its damp darkness. I try to claw my way back, but exhaustion is overtaking me. The touch of those cold fingers scares and appalls me.

I can still feel your touch at my fingertips. But it seems to be slipping away. I just want to put my head in your lap and sleep. 

Friday, October 14, 2011

Daftar ke Din

दफ्तर के दिन 

एक को 'ग़बन' के सफहों के बीच बुक-मार्क बना के रख छोड़ा 
कुछ को कॉफ़ी के संग निगल लिया
कईयों को अख़बार की तरह -
सरसरी निगाह से देख भर के किनारे रख दिया 

कुछ दिन अब भी कनाट प्लेस के सर्कल्स के चक्कर ही लगा रहे हैं 
दफ्तर के दिन, हम बस ऐसे बिता रहे हैं!
____________

Office Days

One is now a bookmark for 'Ghaban'
Some were gulped down with a hurried cappuccino
Many were just glanced upon like a newspaper, and cast aside

Some days are still hanging around at Connaught Place
This is how I'm spending, my office days! 

Monday, October 03, 2011

तुम्हारी याद

किसी शाम तुम्हारी याद यूं आती है, 
मानो सागर किनारे खड़े हों, 
और एक लहर तर-ब-तर करते हुए, 
साँसों तक में नमकीन पानी भर जाए. 

ऐसी शामों में, एक-एक सांस भारी हो जाती है. 
हर सांस, लगता है मानो जान ले कर ही बाहर आएगी.
.

दर्द की इन्तेहा


दर्द ऐसा कि बस, सहा न जाए
हर एक छुअन पर जान मुंह को आती है 

उफ़! ये नाखून का यूं टूट जाना 
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