Tuesday, July 03, 2007

सतपुडा

Well, ever since I posted the poem "Satpura Ke Ghane Jangal" in my other blog, I've been asked a few times for the full poem. And since I got it some days back, I'm posting the same here

सत्पुडा के घने जंगल

सतपुडा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

झाड़ ऊंचे और नीचे
चुप खडे हैं आंख मीचे
घास चुप है, काश चुप है
मूक शाल-पलाश चुप है

बन सके तो धंसो इनमें
धंस ना पाती हवा jinmein
सत्पुरा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

सडे पत्ते, गले पत्ते
हरे पत्ते, जले पत्ते
वन्य का पथ ढँक रहे से
पंक दल में पले पत्ते

चलो इन पर चल सको तो
दलो इनको दल सको तो
यह ghinaune-घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

अटपटी उलझी लताएं
Daaliyon को खींच खायें
पैर को पकडें अचानक
प्रान को कस लें, कपायें

सांप सी काली लताएं
बला कीपाली लताएं
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

MakDiyon के जाल मुह पर,
और sir के बाल मुह पर
मच्छरों के दंश वाले
दाग काले-लाल मुह पर

वात-झंझा वहन करते
चलो इतना सहन करते
कष्ट से ये सने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

अजगरों से भरे जंगल
अगम, gati से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले
बडे, छोटे बाघ वाले
गरज और दहाड़ वाले
कंप से कनकने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

इन वनों के ख़ूब भीतर
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल के nishchint बैठे
Vijan वन के बीच बैठे
झोपड़ी पर फूस डाले
गोंड तगडे और काले

जब ki होली पास आती
सरसराती घास गाती
और महुए से लपकती
मत्त करती बास आती
गूँज उठते बोल इनके
गीत इनके, ढोल इनके

सत्पुरा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

जागते अँगङाइयों में
खोह, खड्डे, खाइयों में
घास पागल, काश पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल,
मत्त मुर्गे और तीतर
इन वनों के ख़ूब भीतर!

Kshitij तक फैला हुआ सा
मृत्यु तक मैला हुआ सा
Kshubdh काली लहर वाला
Mathit, utthit ज़हर वाला
मेरु वाला, शेष वाला,
शंभु और सुरेश वाला

एक सागर जानते हो,
उसे कैसे मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल!

धंसो इनमें डर नहीं है,
मौत का ये घर नहीं है,
उतरकर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी nirjhar और नाले,
इन वनों ने गोद पाले,
लाख पंछी सौ hiran दल
चांद के kitne kiran दल
झूमते बन-फूल, फलीयां
खिल रही agyaat kaliyaan
हिरत दूर्वा, रक्त kislay,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय,
सत्पुरा के घने जंगल
लताओं के बने जंगल!

(by Bhawani Prasad Mishra)

Huff! Now I know how Shankar Mahadevan must have felt after singing "Breathless" :p
But, nevertheless, it's a beautiful poem. If only someone could muster up the courage and patience required to finish it!

For you all, in Hindi! :) (Thanks, Ritz)

Wow! यह तो कमाल है! ;)

[Well, I found typing words like 'kiran', 'kitne' (basically anything with a chhoTee i ki maatra impossible! So, if anyone knows who to type them, please help me out :)]

12 comments:

Gary said...

You can actually convert what you wrote in roman to devnagari, with a few minor corrections, using the same technique as described on blogger help pages.

Kanupriya said...

@gary
yes, I know :)
I'll try to do that, in some time :)

The Black King said...

Lovely poem!!

And I would love to see the Hindi transcript!

Kanupriya said...

oops! so many of u asking for the hindi transcript?! looks like I'll have to do sth :-s
btw, did u read the entire poem? :p

Raja said...
This comment has been removed by the author.
Kanupriya said...

@Raja
thanks :)
mine or his? :p

Surabhi said...

Hi
I found the transiliteration tool of blogger.com capable of writing all those word in hindi.
I've typed all of them for u...here...
http://surabhi-srijan.blogspot.com/

Kanupriya said...

@Surabhi
even on ur blog, I see the incorrect rendering! :-s

Kanupriya said...

but thanks anyway :)
maybe there's some problem with the rendering on my system!

Rishabh Sharma said...

Awesome Kanupriya! Kudos to you! And thanks for dropping by my blog to let me know that you have the full version now. Cheers!

Kanupriya said...

@Rishabh
:)

Unknown said...

पाजी तुस्सी तान कमाल कर दित्ता

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